श्रीमैत्रेयजीने कहा—जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धनको प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान्की माया है ।।९।। जिस प्रकार स्वप्न देखनेवाले पुरुषको अपना सिर कटना आदि व्यापार न होनेपर भी अज्ञानके कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीवको बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ।।१०।।यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वरमें इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिबिम्बमें न होनेपर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीवमें ही देहके मिथ्या धर्मोंकी प्रतीति होती है, परमात्मामें नहीं ।।११।। निष्कामभावसे धर्मोंका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्तियोगके द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ।।१२।। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयोंसे हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरिमें निश्चलभावसे स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रामें सोये हुए मनुष्यके समान जीवके राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ।।१३।। श्रीकृष्णके गुणोंका वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशिको शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदयमें उनके चरणकमलकी रजके सेवनका प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है? ।।१४।।
रविवार, 26 जून 2022
4विदुर जी का मैत्रेय जी का पास जाना
स्वामिन्! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझनेयोग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दुःखको सुगमतासे पार कर जाऊँ’ ।।१८।।
विदुरजीने कहा—उद्धवजी! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपने स्वरूपके गूढ़ रहस्यको प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान्के सेवक तो अपने सेवकोंका का कार्य सिद्ध करने के लिऐ ही विचरा करते हैं।
उद्धवजीने कहा—उस तत्त्वज्ञानके लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजीकी सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोकको छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान्ने ही आपको उपदेश करनेके लिये उन्हें आज्ञा दी थी ।।२६।।
शनिवार, 25 जून 2022
9ब्रह्म स्तुति
- भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है।
- चित् शक्तिके प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है।
- परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता।
- विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है।
- भक्तजनोंके हृदय-कमलसे आप कभी दूर नहीं होते;
- अभय प्रद चरणारविंदों का आश्रय
- अमंगलोंको नष्ट करनेवाले
- कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है
- मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है,तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती।
- आपके कथाप्रसंगसे विमुख रहते हैं तो उन्हें संसारमें फँसना पड़ता है।
- आपका मार्ग केवल गुण श्रवण से ही जाना जाता है।
- आप एक हैं तथा संपूर्ण प्राणियों के अंतःकरणों में स्थित व उनके परम हितकारी अंतरात्मा है।सर्व भूत दया
- आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्म फल है।
- स्वरूप के प्रकाश
- आप नित्य अजन्मा है मैं आपकी शरण लेता हूं।
- इस विष वृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं
- बलवान कल भी आपका ही रूप है
- आप ही अधिक ग्रुप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हैं
- आप पूर्ण काम है
- आप अविद्या अस्मिता राग द्वेष और अभिनिवेश पांचों में से किसी के भी अधीन नहीं है
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13.वराह
वराह अवतार
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श्रीमैत्रेयजीने कहा—जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धनको प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस...